Monday, September 29, 2008

India ! Learn from Sweden...

स्वीडन से सीखने लायक एक मिसाल
गुरचरन दास
Sunday, September 21, 2008 13:44 [IST]

सामयिक. भारतीय स्कैंडिनेविया के बारे में बहुत कम जानकारी रखते हैं। इसमें उत्तरी यूरोप के चार देश- स्वीडन, नार्वे, डेनमार्क और फिनलैंड शामिल है।

हममें से कुछ लोग मोबाइल कंपनी नोकिया के बारे में जरूर जानते हैं जो फिनलैंड की है। भौगोलिक विविधताओं में आनंद लेने वाले लोगों की नजर में यह ऐसी जगह है जहां गर्मी में मध्यरात्रि तक सूरज के दर्शन किए जा सकते हैं।

मेरे जैसे पुराने उदारवादी स्कैंडिनेविया को अत्यंत नियंत्रित, नौकरशाही ग्रस्त और अत्यधिक टैक्स वाली अर्थव्यवस्था के रूप में याद करते हैं। लेकिन आर्थिक सुधारों के बाद वहां का परिदृश्य काफी बदल गया है। अब स्कैंडिनेवियाई देश समाजवाद और पूंजीवाद के मिश्रण का बेहतरीन उदाहरण हंै। यह अपने नागरिकों का सबसे ज्यादा ख्याल रखने वाला समाज है। यह व्यापार करने के लिए भी बेहद अनुकूल क्षेत्र बन चुका है।

अगर आप वहां कोई उद्योग शुरू या बंद करना चाहते हैं तो आपको केवल एक दिन लगेगा। वहां कर्मचारियों को नौकरी पर रखना भी आसान है और निकालना भी। लालफीताशाही न के बराबर है, भ्रष्टाचार का भी उन्मूलन किया जा चुका है। वहां के लोगों का जीवन स्तर दुनिया मंे सबसे ऊंचा है। ऐसे में अगर अन्य देशों को इससे ईष्र्या हो तो कोई अचरज नहीं होगा।

डेनमार्क में श्रम सुधारों ने व्यापार को बेहद आसान बना दिया है। ऐसे ही श्रम सुधारों की भारत में भी दरकार है, लेकिन इस मामले में हम आज भी पिछड़े हैं। भारत के श्रम कानून नौकरियों का संरक्षण करते हैं, जबकि डेनमार्क के कानून नौकरियों का नहीं, कर्मचारियों का संरक्षण करते हैं। इससे वहां उद्योगपति और कर्मचारी दोनों ही खुश रहते हैं। इसके विपरीत भारत का व्यवसायी किसी को अधिकृत तौर पर नौकरी पर रखने से डरता है, क्योंकि एक बार नियुक्ति देने के बाद उसे हटाना लगभग असंभव हो जाता है। भारत में तब तक औद्योगिक क्रांति की उम्मीद नहीं की जा सकती, जब तक कि वह बाबा आदम के जमाने के श्रम कानूनों का पूरी तरह से खात्मा नहीं कर देता।

स्वीडन में 1990 के दशक के पूर्वार्ध में हुए शैक्षणिक सुधारों में भारत अपने लिए भी सबक ढूंढ सकता है। स्वीडन में शैक्षणिक सुधार दो चरणों में हुए। पहले चरण में स्कूलों का नियंत्रण स्थानीय प्रशासन के हाथों में सौंप दिया गया। दूसरे चरण में अभिभावकों को सरकारी या निजी स्कूलों में से किसी में भी अपने बच्चे का दाखिला करवाने की छूट दी गई। इसके तहत सरकार अभिभावकों को वाउचर (एक प्रकार की छात्रवृत्ति) देती है। इन वाउचरों को हासिल करने के लिए स्कूलों में प्रतिस्पर्धा होती है क्यांेकि इन्हीं के बदले में उन्हें सरकार से पैसा मिलता है। हर स्कूल की कोशिश बेहतरीन शिक्षा देने की होती है।

स्वीडन का यह स्कूली मॉडल हमारे देश के लिए बेहद प्रासंगिक है जहां सरकारी स्कूलों की विफलता जगजाहिर है। मध्यमवर्ग के लोगों ने काफी पहले ही सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को भेजना बंद कर दिया था। अब तो गरीब भी सरकारी स्कूलों से कन्नी काटने लगे हैं, अपने बच्चों को सस्ते निजी स्कूलों में डालने लगे हैं। यदि हमारे यहां का कोई राजनेता स्वीडन के इस स्कूली पैटर्न का अनुसरण करे तो यकीन मानिए, वह कभी चुनाव नहीं हारेगा।

इससे मध्यम वर्ग से लेकर गरीब परिवार सब खुश होंगे क्योंकि सभी को शिक्षा के समान व बेहतर अवसर मिलेंगे। जिस स्कूल का शैक्षणिक स्तर जितना अच्छा होगा, उसे उतने ही अधिक वाउचर मिलेंगे और जितने अधिक वाउचर मिलेंगे, शिक्षकों को भी उतना ही अधिक वेतन मिलेगा। इससे सरकारी स्कूलों में भी शिक्षा का स्तर सुधरेगा क्योंकि शिक्षकों का वेतन उनके स्कूलों को मिलने वाले वाउचरों पर निर्भर करेगा।

स्वीडन में स्कूली सुधार एक बड़ी मिसाल है। यह निजी उद्यमियों व निवेशकों के अनुकूल है। इसमें सरकार को भी भूमिका निभाने का मौका मिलता है। वैसे स्वीडिश सरकार अपनी ओर से केवल संसाधन मुहैया करवाकर मूलभूत दिशा-निर्देश तैयार करती है। शेष जिम्मेदारी निजी क्षेत्र की होती है।

यहां कुछ ऐसे भारतीय भी होंगे जो कहेंगे कि स्वीडन जैसे छोटे-से देश से भारत को भला क्यों सबक सीखना चाहिए? लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि महान देश केवल इसलिए महान बने क्योंकि उन्होंने दूसरों से सीखने में कोई शर्म महसूस नहीं की और जो भी उन्हें ठीक लगा, उसे स्वीकारने में भी देर नहीं लगाई।
(लेखक प्रोक्टर एंड गैंबल इंडिया के चेयरमैन व मैनेजिंग डायरेक्टर रह चुके हैं।)